24-Jun-2025 10:59 PM
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नयी दिल्ली, 24 जून (संवाददाता) केन्द्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने मंगलवार को कहा कि जनता के मन में लोकतंत्र की महत्ता और आस्था को बनाए रखने के लिए आपातकाल की याद जीवंत रखना जरूरी है और यदि इसे भुला दिया जाए तो यह लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बन सकता है।
भाजपा के वरिष्ठ नेता श्री शाह ने आज यहां प्रधानमंत्री संग्रहालय में “आपातकाल के 50 वर्ष” विषय पर आयोजित कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा कि प्रधानमंत्री श्री मोदी ने 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाए जाने का निर्णय लिया है। आपातकाल जैसी घटना, लोकतंत्र की नींव को हिला दिया था यदि उसकी स्मृति समाज के मन से मिटने लगे, तो यह किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बन सकता है। ऐसी घटनाओं की स्मृति युवाओं और किशोरों की चेतना से धीरे-धीरे मिटने लगती है, तब इस प्रकार की संगोष्ठियां और ‘संविधान हत्या दिवस’ जैसे आयोजन उस स्मृति को पुनर्जीवित करने का कार्य करते हैं।
कार्यक्रम में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के अध्यक्ष अनिर्बान गांगुली और पाञ्चजन्य के प्रमुख संपादक हितेश शंकर सहित अन्य लोग उपस्थित रहे।
श्री शाह ने कहा कि अक्सर लोगों के मन में सवाल उठते हैं कि 50 वर्ष पहले हुए आपातकाल की चर्चा करने का अब औचित्य क्या है? प्रधानमंत्री श्री मोदी ने यह निर्णय लिया कि 25 जून को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाया जाएगा तब भी यह सवाल बार-बार उठाए गए। लेकिन आज का दिन इस संगोष्ठी के लिए सबसे उपयुक्त है। क्योंकि हर तरह की घटना के 50 वर्ष पूरे होने पर सामाजिक स्मृति में उसकी तस्वीर धुंधली पड़ने लगती है। आपातकाल जैसी घटना, लोकतंत्र की नींव को हिला दिया था, यदि उसकी स्मृति समाज के मन से मिटने लगे, तो यह किसी भी लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बन सकता है। लोकतंत्र और तानाशाही केवल व्यक्ति से जुड़े हुए नहीं हैं, बल्कि मन की दो अलग-अलग प्रवृत्तियां हैं, जो मानव स्वभाव में निहित हैं। ये भावनाएं समय-समय पर समाज और देश के समक्ष फिर से उभर कर चुनौती बन सकती हैं। अगर तानाशाही की प्रवृत्ति दोबारा चुनौती बन सकती है, तो लोकतांत्रिक स्वभाव भी देश के कल्याण के लिए उतना ही आवश्यक है।
केन्द्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री कहा कि जब पीढ़ियां बदलती हैं और ऐसी घटनाओं की स्मृति युवाओं और किशोरों की चेतना से धीरे-धीरे मिटने लगती है, तब इस प्रकार की संगोष्ठियां और ‘संविधान हत्या दिवस’ जैसे आयोजन उस स्मृति को पुनर्जीवित करने का कार्य करते हैं। यह सदैव याद रखना चाहिए कि आपातकाल को हटाने के लिए कितनी बड़ी लड़ाई लड़ी गयी थी। उस समय लाखों लोग जेलों में बंद थे, लोग अपना परिवार, अपना करियर और यहां तक कि अपना सब कुछ न्योछावर करके भी डटे रहे। मगर इसी लड़ाई ने भारत में लोकतंत्र को जीवित रखा और आज, भारत विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में गर्व से खड़ा है। इस जीत का मूल कारण था भारत देश की जनता। भारत की जनता तानाशाही को कभी स्वीकार नहीं कर सकती। क्योंकि, सच्चाई यही है कि पूरी दुनिया में लोकतंत्र का बीज तो सबसे पहले भारत की धरती पर ही प्रस्फुटित हुआ था। भारत को लोकतंत्र की जननी माना जाता है। यहां लोकतंत्र सिर्फ संविधान की भावना में नहीं, बल्कि जनमानस के स्वभाव में बसा हुआ है। संविधान निर्माताओं ने जनता की भावना को ही शब्दों में ढालकर संविधान में व्यक्त किया है। कोई डर के कारण चुप रहा होगा, कोई कफन बांध कर लड़ा होगा, किसी ने पीड़ा सहकर सब कुछ झेला होगा, तो कोई समय की प्रतीक्षा करता रहा होगा, लेकिन उस समय के किसी भी सजग नागरिक को आपातकाल पसंद नहीं आया होगा। सिवाय तानाशाहों और उनके चारों ओर जमा एक छोटे से स्वार्थी गुट को। जब यह भ्रम फैल गया कि ‘कांग्रेस को कौन चुनौती देगा’, तब जनता खड़ी हो गई, आपातकाल हटाने पर मजबूर हुई, चुनाव हुआ और आजादी के बाद पहली बार एक गैर-कांग्रेसी सरकार बनी, जिसमें जनता पार्टी के श्री मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने।
श्री शाह ने कहा कि दस्तावेजों में भले ही पचास साल बीत चुके हों, परंतु करोड़ों भारतीयों के मन में उस समय की स्मृति आज भी उतनी ही ताजा है जितनी 24 जून 1975 की रात को थी। स्वतंत्र भारत के इतिहास की वह रात शायद सबसे लंबी थी और एक प्रकार से सबसे छोटी भी। सबसे लंबी भी इसलिए, क्योंकि इस रात की सुबह पूरे 21 महीने बाद आई। 21 महीनों के बाद ही देश में फिर से लोकतंत्र लौटा और सबसे छोटी इसलिए, क्योंकि जिन अधिकारों को स्थापित करने के लिए विधिक प्रक्रिया, संसद की गरिमा और नागरिक सम्मान की रक्षा हेतु जो नियम बनाए गए थे, जिनका निर्माण दो वर्ष, 11 महीने और 18 दिन में हुआ, उन्हें एक झटके में नष्ट कर दिया गया।
उन्होंने कहा कि हमारे संविधान का निर्माण एक तपस्या था। इसमें 13 समितियां बनीं, 11 सत्रों में 165 दिनों की चर्चा हुई, 163 दिनों में 114 दिन संविधान के विभिन्न प्रावधानों पर व्यापक बहस हुई। कुल 1100 घंटे और 32 मिनट चर्चा हुई, सात सदस्यीय प्रारूप समिति ने उसे अंतिम रूप दिया। यह संविधान, जो विचार और विमर्श में दुनिया के तमाम लोकतांत्रिक संविधान से कहीं अधिक गहरा और परिश्रम से बनाया गया था, उसे एक ‘किचन कैबिनेट’ के तुगलकी फरमान ने एक ही मिनट में खारिज कर दिया।
केन्द्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री ने कहा कि आपातकाल की व्याख्या इससे बेहतर और क्या ही हो सकती है? एक बहुदलीय लोकतांत्रिक देश के मूल स्वभाव को एक व्यक्ति की तानाशाही में बदलने का षड्यंत्र ही “आपातकाल” है। इस षड्यंत्र को उस समय बहुत से लोगों ने पुरजोर विरोध किया। उस काली रात की सुबह ने भारत की आत्मा को झकझोर दिया। स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी त्रासदी को तर्कों, तथ्यों और घटनाओं की श्रृंखला के माध्यम से समझा जा सकता है। परंतु तर्क और तथ्य से अधिक प्रभावी मनुष्य की संवेदना और कल्पना होती है। उस आपातकाल के समय कि उस क्षण की कल्पना करने पर याद आता है कि कल तक भारत के नागरिक अगली सुबह एक तानाशाह के गुलाम बन गए। कल तक का एक पत्रकार अगली सुबह असामाजिक तत्व करार दे दिया गया। कल तक का एक छात्र "अस्थिरता फैलाने वाला" युवा घोषित हो गया। कल तक का एक सामाजिक कार्यकर्ता अचानक राष्ट्र के लिए खतरा घोषित हो गया। एक आम नागरिक को अपनी सोच आजाद रखने के जुर्म में जेल में डाल दिया गया। उस एक सुबह की क्रूरता कितनी भयानक रही होगी इसकी कल्पना करने मात्र से ही रूह कांप जाती है।
श्री शाह ने आपातकाल में आपबीती का उल्लेख करते हुए कहा, "आज लोग मुस्कुराते हुए कह देते हैं "हम तो उस वक्त पैदा भी नहीं हुए थे" लेकिन मैं उस समय 11 वर्ष का था। गुजरात में आपातकाल का असर बाकी राज्यों की तुलना में कम था, क्योंकि वहां जनता पार्टी की सरकार बन चुकी थी। लेकिन बाद में वह सरकार भी गिरा दी गई और एक साल के भीतर आपातकाल का कहर गुजरात पर भी टूटा। गाँव में जनसंघ के कार्यकर्ता, संघ के स्वयंसेवक, समाजवादी और सर्वोदय आंदोलन से जुड़े पुनर्निर्माण के लक्ष्य के साथ चल रहे सभी लोगों को देशद्रोही घोषित कर दिया गया और जेल में बंद कर दिया गया। मेरे अकेले गांव से 184 लोगों को एक साथ ब्लू जेल वैन में भरकर साबरमती जेल भेजा गया। मैं आज तक वह दृश्य नहीं भूल पाया हूँ और मरते दम तक नहीं भूल पाऊँगा। उस समय हम गाँव के बड़ों को पूजते थे। आज भी मैं सोचता हूँ, प्रोफेसर मंगलदास का दोष क्या था? उस समय न कोई बता सकता था, न कोई बताना चाहता था। किसी में हिम्मत भी नहीं थी क्योंकि जो दृश्य देखा गया था, वह अत्यंत क्रूर और हृदयविदारक था।"
केन्द्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री ने कहा कि 25 जून 1975 की सुबह सूरज तो उगा लेकिन उसकी रोशनी आजाद नहीं थी। उस सुबह मौलिक अधिकारों की चादर ओढ़े नागरिक तानाशाही की जंजीरों में बंधे हुए नींद से जगे थे। उस दिन संविधान की आत्मा को कुचलते हुए, जनादेश से बनी सरकारों को रातों-रात गिरा दिया गया और इस देश के युवाओं को यह बात कभी नहीं भूलनी चाहिए। जब व्यक्ति के भीतर छिपा तानाशाही स्वभाव सतह पर आ जाता है, तब क्या होता है, यह इतिहास बताता है। यह इतिहास देश के युवाओं को समझाना पड़ेगा, जिन्हें उसका अनुभव नहीं है। आज जो लोग संविधान के दुहाई देते हैं, उन्होंने क्या 25 जून की सुबह को देखा था? उस सुबह ठीक आठ बजे ऑल इंडिया रेडियो से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की आवाज गूंजी कि "राष्ट्रपति ने देश में आपातकाल की घोषणा की है।"
श्री शाह ने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं से सवाल पूछे कि क्या आपातकाल जैसे निर्णय के लिए संसद की सहमति ली गई थी? क्या मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई गई थी? क्या विपक्ष या देशवासियों को विश्वास में लिया गया था? आज लोकतंत्र की खोखली बातें कर रहे लोग उसी पार्टी से जुड़े हैं जिसने लोकतंत्र के रक्षक की नहीं बल्कि भक्षक की भूमिका निभाई थी। आपातकाल के लिए कारण बताया गया राष्ट्र की सुरक्षा, जबकि वास्तविक कारण था अपनी सत्ता की सुरक्षा। क्योंकि, जब इंदिरा गांधी के विरुद्ध चुनाव लड़ने वाले राजनारायण ने उनके चुनाव को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी, तब अदालत ने उनके (इंदिरा गांधी) चुनाव को निरस्त कर दिया और कहा कि उन्होंने सरकारी संसाधनों का दुरुपयोग किया। उच्चतम न्यायालय ने तकनीकी आधार पर उन्हें स्थगन तो प्रदान कर दिया, लेकिन यह शर्त रखी कि वे प्रधानमंत्री तो रह सकती हैं, परंतु संसद में मतदान नहीं कर सकतीं और सांसद के रूप में कोई अधिकार नहीं ले सकतीं। इसके बाद इंदिरा गांधी ने नैतिक आधार पर इस्तीफा नहीं दिया, बल्कि इसी संवैधानिक परिस्थिति का सहारा लेकर, संविधान की धाराओं को ही तोड़-मरोड़कर संविधान की आत्मा की हत्या की। उस समय देश में न कोई बाहरी सुरक्षा का संकट था, न कोई आंतरिक संकट। देश महंगाई से जूझ रहा था। गुजरात में छात्रों ने सबसे पहले विरोध की मशाल जलाई, जो बिहार तक पहुंच गई। जेपी आंदोलन शुरू हुआ, रेलवे कर्मचारी हड़ताल पर चले गए और जगह-जगह कांग्रेस के भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाजें उठने लगीं। मोरारजी देसाई आमरण अनशन पर बैठ गए और देश की जनता जाग उठी थी। बहुमत के नशे में चूर इंदिरा गांधी की सत्ता की कुर्सी डगमगाने लगी थी। एक व्यक्ति ने अपनी सत्ता को बचाने के लिए देश को आपातकाल की आग में झोंक दिया गया। सुबह 4 बजे कैबिनेट की आपात बैठक बुलाई गई। तत्कालीन कैबिनेट सदस्य बाबू जगजीवन राम और स्वर्ण सिंह ने बाद में कहा कि "जब हम बैठक में पहुँचे, तो हमें न कोई एजेंडा बताया गया, न कोई विचार-विमर्श हुआ, केवल सूचना दी गई।" गृह सचिव को बुलाकर आगे की कार्रवाई आरंभ कर दी गई।
केन्द्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री ने कहा कि जिस संविधान के बल पर यह देश दशकों तक चलने वाला था, उस संविधान का निर्माण भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों, हर विचारधारा के प्रतिनिधियों, यहां तक कि राजे-रजवाड़ों के सम्मिलित प्रयासों से हुआ था। लोकतांत्रिक प्रक्रिया से गठित उस संविधान सभा ने यह संविधान निर्मित किया। लेकिन इंदिरा गांधी ने संविधान के अनुच्छेद 352 का दुरुपयोग किया। अनुच्छेद 352 का उद्देश्य देश पर गंभीर संकट आने की स्थिति में आपातकाल लागू करना था, किंतु इंदिरा गांधी ने उसी अनुच्छेद का प्रयोग कर केवल सत्ता बचाने के लिए, देश में आपातकाल लागू कर दिया। इस आपातकाल के दौरान 1,10,000 से अधिक विपक्षी राजनीतिक नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया। केवल नेता ही नहीं, पत्रकार, संपादक, रिपोर्टर, छात्र नेता, समाजसेवी सभी को जेल में बंद कर दिया गया। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका, प्रेस, मीडिया, कलाकार और आम जन सभी स्तब्ध रहकर यह दृश्य देख रहे थे। किसी को यह समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या करना चाहिए। देखते ही देखते पूरा देश एक कारागार में परिवर्तित हो गया। श्री जयप्रकाश नारायण, श्री मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, श्रद्धेय श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी, श्री लालकृष्ण आडवाणी जी, श्री नानाजी देशमुख, श्री जॉर्ज फर्नांडिस और आचार्य कृपलानी जैसे वरिष्ठ नेताओं को जेल की काल कोठरियों में डाल दिया गया। जो लोग संसद की समितियों में सदस्य थे, उन्हें भी जेल में डाल दिया गया। आगे चलकर गुजरात और तमिलनाडु की गैर कांग्रेसी सरकारों को गिराने का भी प्रयास किया गया।
श्री शाह ने कहा कि समय भी एक अजीब विडंबना लेकर आता है। अनेक बार समय दोहरे चरित्रों को सतह पर उजागर कर देता है। आज कांग्रेस पार्टी के साथ वे लोग भी खड़े हैं, जिनकी सरकारें तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा गिरा दी गई थीं। सपा और द्रमुक के अनेक नेता स्वयं 19 महीने तक जेल में रहे थे। कई ऐसे लोग आज संसद में बैठे हैं और लोकतंत्र को लेकर प्रश्न उठा रहे हैं। कांग्रेस का साथ देने वाले इन दलों को लोकतंत्र पर प्रश्न खड़े करने का कोई अधिकार नहीं है। वह समय भारत की लोकतांत्रिक यात्रा के लिए किसी दुःस्वप्न से कम नहीं था। आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने संविधान में इतने व्यापक परिवर्तन किए कि उन परिवर्तनों को "मिनी संविधान" कहा जाने लगा।
उन्होंने कहा कि संविधान की प्रस्तावना में बदलाव किया गया, अनुच्छेद 14 में संशोधन किया गया, सातवीं अनुसूची में फेरबदल किया गया। 40 से अधिक धाराओं में परिवर्तन किए गए, नए अनुच्छेद और खंड जोड़े गए। 42वें संविधान संशोधन द्वारा तो सीमाएं ही लांघ दी गईं। इस संशोधन के माध्यम से संविधान के मूल ढांचे को परिवर्तित करने का प्रयास किया गया। न्यायपालिका को भी मौन कर दिया गया, जहां पहले से ही अनुकूल न्यायाधीश नियुक्त कर दिए गए थे। 59वां संशोधन अंततः उच्चतम न्यायालय की शक्तियों को सीमित करने का माध्यम बन गया। विभिन्न संस्थाओं और एजेंसियों का जिस प्रकार दुरुपयोग किया गया, उसे यह समाज, यह देश और इसकी जागरूक जनता कभी नहीं भूल सकती। इसी कारण प्रधानमंत्री श्री मोदी ने यह निर्णय लिया है कि भाजपा "संविधान हत्या दिवस" मनाएगी, ताकि यह स्मृति राष्ट्र के मानस में सदैव जीवित रहे।
केन्द्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री ने कहा कि आपातकाल के दौरान जो संविधान संशोधन हुए, उनमें 38वां संशोधन प्रमुख था, जिसके तहत अनुच्छेद 130 और 213 के द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपाल के अधिकारों को बढ़ा दिया गया। अनुच्छेद 352 द्वारा आपातकाल की उद्घोषणा को न्यायिक समीक्षा से बाहर कर दिया गया। फिर अनुच्छेद 329 में संशोधन कर प्रधानमंत्री को भी न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर कर दिया। इसके साथ ही अनुच्छेद 323ए और 323बी के माध्यम से प्रशासनिक मामलों को देखने वाले न्यायाधिकरणों को सरकार के नियंत्रण में ला दिया गया। अनुच्छेद 19 के तहत मिलने वाले मौलिक अधिकारों को सीमित कर दिया गया और अनुच्छेद 356 के तहत आपातकाल की अवधि को बढ़ा दिया गया। संसद की सीमाएं भी बढ़ा दी गईं और व्यापक प्रशासनिक दुरुपयोग हुआ। तिहाड़ जेल में ही 4000 लोग मीसा के तहत बंद थे, जबकि जेल की क्षमता सिर्फ 1200 की थी। एक करोड़ से अधिक लोगों कि जबरन नसबंदी की गईं। लता मंगेशकर जी ने ऐसे गाने गाए, जिनमें पुरुष और महिला दोनों की आवाजें उन्हीं की थीं, क्योंकि किशोर कुमार की आवाज को आकाशवाणी से बैन कर दिया गया था। न्याय का यह काल और लंबा चलता, अगर चाटुकारिता ही अंत का कारण न बनती। लेकिन अंततः दिल्ली में झुग्गियों का विध्वंस जैसी कई घटनायें आपातकाल के समर्थन में अंजाम दिया गया।
श्री शाह ने कहा कि कांग्रेस पार्टी ने आज तक इस गलती को स्वीकार नहीं किया। यहां तक कि राजीव गांधी ने भी कभी इसे गलत नहीं माना। राजीव गांधी ने दंगों को जायज़ ठहराने की मानसिकता भी दिखाई। उन्होंने कहा, “जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो जमीन हिलती है।" इस पूरी स्थिति में सबसे दुखद बात यह रही कि बंदी प्रत्यक्षीकरण यानी हेबियस कॉर्पस की अर्जियों को खारिज करने के लिए भी संविधान में बदलाव कर दिए गए। श्री जयप्रकाश नारायण उस समय के एक दूरदर्शी नेता थे, जिन्होंने उत्पन्न हो रहे खतरे को न केवल पहचाना, बल्कि उसका गंभीर मूल्यांकन भी किया। उनकी तबीयत ठीक नहीं थी, फिर भी जब उन्हें गिरफ्तार करने के लिए पुलिस पहुंची, उन्होंने एक ऐतिहासिक वाक्य कहा ‘विनाशकाले विपरीत बुद्धि’। बाद में इंदिरा गांधी को लिखे अपने पत्र में उन्होंने यह भी लिखा “एक गलत फैसले को सही ठहराने के लिए आप बार-बार गलत निर्णय ले रही हैं। इतिहास आपको कभी माफ नहीं करेगा।” लोकनायक जयप्रकाश नारायण उस समय समूचे देश की आवाज बन गए। उन्हीं की आवाज ने भारत को दोबारा लोकतंत्र लौटाया। करोड़ों भारतीयों ने आपातकाल के विरुद्ध संघर्ष किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हजारों कार्यकर्ता, जनसंघ और कांग्रेस के असंतुष्ट नेता, सर्वोदय आंदोलन के अनुयायी, गांधीवादी चिंतक, हर वर्ग के लोग जेलों में बंद हुए, सत्याग्रह किया, और बिना डरे, बिना थके, लगातार संघर्ष करते रहे। जनता भी पूरी शक्ति और समर्पण के साथ इन संघर्षशील जनों के साथ खड़ी रही।”
केन्द्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री ने कहा कि जब अभिव्यक्ति का अवसर आया, तब हम सब अपने गाँव से एक ट्रक में सवार होकर टाइम्स ऑफ इंडिया की इमारत के बाहर खड़े थे, जहां चुनाव के परिणाम लिखे जाते थे। तकरीबन सुबह 3 या 4 बजे का समय रहा होगा, जब यह समाचार आया कि इंदिरा गांधी और संजय गांधी दोनों चुनाव हार गए हैं। उस समय जनता के चेहरों पर जो उत्साह और उल्लास था, वह दृश्य आज भी मेरी स्मृति में अमिट है। आज यदि लोकतांत्रिक दलों का उत्थान और पतन स्पष्ट दिखाई देता है, तो उसका इतिहास भी यहीं से प्रारंभ होता है। आपातकाल के पश्चात ही कांग्रेस पार्टी का पतन आरंभ हुआ। उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं मिली, राजस्थान में एकाध, मध्य प्रदेश और बिहार में पूर्ण शून्य। कांग्रेस धीरे-धीरे देश की मुख्यधारा से हटकर एक क्षीण और सीमित होती हुई राजनीतिक पार्टी बन गई। जब जनता पार्टी की सरकार गिरी, तब कांग्रेस को पुनः एक अवसर मिला, परंतु वह प्रभाव और जनाधार, जो उसे स्वतंत्रता संग्राम से प्राप्त हुआ था कांग्रेस उसे हमेशा के लिए खो बैठी। आज तक कांग्रेस वह स्थिति प्राप्त नहीं कर सकी है। यह दिन सभी राजनीतिक दलों के लिए एक गहन सीख है कि विविध विचारधाराओं का अस्तित्व ही लोकतंत्र की सुदृढ़ नींव है। विचारधारा कोई भी हो, मार्ग अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन अंतिम लक्ष्य राष्ट्र को महान बनाना ही होना चाहिए। ऐसे देश की रचना कभी नहीं हो सकती, जो केवल एक विचारधारा पर चले, केवल एक नेता के नेतृत्व पर टिका हो। जहां "मैं ही सही हूं" की मानसिकता हो और दूसरों को मत देने अथवा अपनी बात कहने का अधिकार भी न हो, यह सोच संविधान की मूल भावना से कतई मेल नहीं खाती।
श्री शाह ने कहा कि संविधान ने लोकतंत्र की भावना को मुखर किया, उसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति की और उसे विधिक रूप प्रदान किया। संविधान ने भारत की संभावनाओं को भलीभांति समझकर, उन्हें विधि की भाषा में रूपांतरित किया है। भारत की जनता मूलतः लोकतांत्रिक मूल्यों और विचारों में विश्वास रखने वाली है। भारतीय परंपरा विभिन्न विचारों, मतों और दृष्टिकोणों का सम्मान करने वाली हजारों वर्षों पुरानी सांस्कृतिक परंपरा है। यदि सभी इतिहास की दृष्टि से अवलोकन करें, तो यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है पंचायती विचार, सरपंच की परंपरा, यह सब भारतीय परंपरा की ही देन हैं। भगवान श्रीकृष्ण कभी राजा नहीं बने बल्कि वे एक गणराज्य के सदस्य थे। बुद्ध के काल में मल्लों का गणराज्य, वैशाली का गणराज्य ये सभी विश्व के पहले लोकतांत्रिक प्रयोग थे। वर्षों से चले आ रहे इस सह-अस्तित्व के भाव ने ही हमारे संविधान की आधारशिला रखी। संविधान सभा में हर प्रांत, हर विचारधारा, हर जनपद से आए प्रतिनिधि शामिल थे। वे अपने क्षेत्रों की भावना लेकर आए थे और उस व्यापक विमर्श के बाद जो अमृत निकला, वही हमारा संविधान है। इसलिए हमारी लोकतंत्र की नींव इतनी गहरी है कि कोई भी तानाशाह अगर उसे हिलाने की कोशिश करेगा, तो अपना भविष्य ही बर्बाद करेगा।
केन्द्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री ने कहा कि यह दिन केवल स्मरण का दिन ही नहीं है, बल्कि यह दिन एक असफल तानाशाही प्रयास की निंदा करने का भी दिन है। यह दिन युवाओं को लोकतंत्र की मशाल थमाने का दिन है, ताकि वे आगे बढ़ें, सतर्क रहें। शाह आयोग की रिपोर्ट ने उस काल की भयावहता को दर्ज करने की कोशिश की लेकिन देश इतना बड़ा है, और अत्याचार इतने व्यापक स्तर पर हुए कि कोई एक रिपोर्ट सब कुछ दर्ज नहीं कर सकती। शाह आयोग की रिपोर्ट सिर्फ एक संक्षिप्त चित्र है। लेकिन युवाओं को इसे जरूर पढ़ना चाहिए। हर पैराग्राफ, हर पंक्ति जागरूकता बढ़ाएगी और अगर भविष्य में कोई तानाशाह उठने की सोचे, तो वही युवा श्री जयप्रकाश नारायण बनकर सामने खड़े हो जाएं। भारतीय जनता पार्टी के हमारे राष्ट्रीय, प्रदेश और जिला स्तर के नेतृत्व ने उस समय संघर्ष किया। कोई पकड़ा गया, कोई भूमिगत रहा, लेकिन सबने आंदोलन में भाग लिया। प्रधानमंत्री श्री मोदी ने भी उस संघर्ष पर एक पुस्तक लिखी है, जिसका कल ही विमोचन है, जिसमें विस्तार से बताया गया है कि किस प्रकार से आपातकाल के खिलाफ संघर्ष हुआ और लोकतंत्र को फिर से कैसे स्थापित किया गया। यह बात याद रखी जाए कि राजमाता विजयाराजे सिंधिया जैसी शाही परिवार की महिला को चार मानसिक रोगियों के साथ एक ही जेल में रखा गया था। यही था आपातकाल का चेहरा और आज, जब कोई कहता है "अब क्या है? आज क्यों याद कर रहे हो?" तो वे नहीं जानते कि तानाशाही की मानसिकता कब व्यक्ति के भीतर से उभरकर बाहर आ जाएगी। कब हमें भी लोकनायक जयप्रकाश नारायण की भांति हाथ में मशाल लेकर निकलना पड़ेगा, यह कोई नहीं जानता। इसका कोई तय समय नहीं होता।
श्री शाह ने कहा कि जन प्रबोधन अर्थात जनता के मन में लोकतांत्रिक विचारों को गहराई से स्थापित करना हर नागरिक का कर्तव्य है। संविधान की आत्मा की रक्षा केवल संसद या न्यायपालिका के भरोसे नहीं की जा सकती। संविधान की आत्मा की रक्षा देश की जनता की सामूहिक जिम्मेदारी है। जो भी संविधान के मूल स्वरूप और भावना के साथ खिलवाड़ करेगा, उसे दंडित करने की जिम्मेदारी जनता पर ही है, क्योंकि लोकतंत्र में जनता ही अंतिम निर्णायक होती है। आज का दिन उसी स्मृति का दिन है। कल ‘संविधान हत्या दिवस’ है और इस दिन को देशभर में मनाकर हम आने वाली पीढ़ियों युवाओं और किशोरों को यह लोकतांत्रिक संस्कार सौंप सकते हैं। यह संस्कार अगले 50 वर्षों तक राष्ट्र की चेतना को दिशा देगा और यही हमारा कर्तव्य है।...////...